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Tuesday, June 29, 2010

शाम जाया कर दी

इक शाम और जाया कर दी
हमेशा की तरह
देखकर यूँ ही चंद तमाशे
और झूठी तालियों के दरमियाँ

तमाम बनावटी चेहरे
भागती हुई ज़िन्दगी की रेस से
चंद ठिठके हुए क़दम !!!

लाख कोशिश की मैंने
बहल जाये ये कमबख्त दिल
दिल भी क्या
जो जिद पे अड़ा हो

दिल जिद पे अड़ा रहा
मैं ग़म के साथ खड़ा रहा

अकुला भागा उस भीड़
और बेसुरी आवाज़ों से

भारी मन था
भारी ही रह गया
और मैंने फिर
इक शाम जाया कर दी !!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी
 25th June, 2010, '255'

उनका तो नाम बिकता है

उनका तो नाम बिकता है बाज़ार में
वो कुछ भी लिख दें छपना ही छपना है
बाज़ार ही कुछ ऐसा है

लोग तो यहाँ तक कहते हैं - आज की
डिमांड है जो उनहोंने लिखा है
किसी फिल्म के साथ उनका नाम जुड़ जाए
तो समझो हिट होनी ही होनी है
चाहे तुकबंदी ही क्यों न हो या
शब्द चीख -चीख कर दम तोड़ रहे हों

सुना था जुगाड़ से सरकार चलती है
मगर यहाँ तो ज़िन्दगी और संघर्ष के
मायने ही बदल रहे हैं
कीमती पत्रिकाओं के चिकने पन्ने
उन्हें छापने की होड़ में लगे हैं , और
परदे के पीछे हिसाब हो रहा है
किसने कितना कमाया ?

मगर आज इन्हीं नाम बिकने वालों के
बीच में एक जोशीली नई कलम
अपने उभरते हस्ताक्षर छोड़ के आयी है
वो कवि नहीं है, जेब खली है, पढने में संघर्षरत है
आज नामों के बाज़ार में
अपनी भावनाएं छोड़ आया है

और पल- पल सोचते हुए कि
छपेगा- नहीं छपेगा
एक नया नाम उजाला पाने के लिए
क़दम- दर- क़दम बढ़ाये जा रहा है .....

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
17th Oct., 2005, '239'

मैं एक आम इंसान हूँ

मैं एक आम इंसान हूँ
लेकिन
तेरे साथ चलकर
खास होने का गुमाँ सा होता है

वो भ्रम भी
भरम में तब्दील होने लगता है
मैं लम्हा -लम्हा जीने लगता हूँ
मेरी घड़ी- घड़ी कीमती होने लगती है
जानता हूँ मुझे कोई नहीं जानता
लेकिन
तेरे साथ होकर
ज़माने कि पहचान होने लगता हूँ
सफ़र, फिर सफ़र न रहकर
ज़िन्दगी जीने का अहसास लगता है

कौन चाहेगा मुझे पढ़ना ?
गर तेरे साथ बिताये
माजी के पन्ने उलट दूँ-
तो अदब, अदब न रहकर
वज्मे सुखन होने लगता है !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
4th Jan, 2008, '242'

आँख नशीली बात शराबी

आँख नशीली बात शराबी, और बिखरी जुल्फें
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है


साँसें बहकी, दिल झूमा, और बेवजह खनखनाहट
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

तसव्वुर में कोई सूरत और दिल में वो ही मूरत
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

अशआर नज़्म और उसके चारसू ग़ज़ल
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

कहकशां की रौशनी, तन्हाईयों की तिश्नगी और तुम
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

कसमें वादे आंसू तड़प और है बस "अजनबी"
ये उल्फत का निशाँ नहीं तो क्या है

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'151' 27th Mar. 2002

जज़्बात का कागज़

जज्बात के कागज़ से मैंने बुनी थी एक पतंग
सांसों कि डोर से चाह था उसको उडाना
दूर कहीं आसमानों मैं
हवाओं का रुख मेरे हक मैं था
बरसात का अंदेशा न था

मैं और मेरी ज़िंदगी बड़े खुश थे उस शाम
मेरे हाथ में पतंग की डोर और
मेरी ज़िंदगी पकड़े थी चरखा
न जाने किस जानिब से
उठा तूफां और जमकर हुई बरसात

मेरी पतंग बिखर चुकी थी
सांसों कि डोर टूट चुकी थी
मेरी ज़िंदगी तूफां के हवाले थी
अब मैं था और मेरी मायूसी
और जज्बात का कागज़ भी चुक गया था !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
11st May, 2002, '161'

राहे उल्फत

राहे उल्फत में काँटों के सिवा कुछ भी नहीं
दिल के आईने में ख्यालों के सिवा कुछ भी नहीं

दुनिया की नज़र में, मैं एक ऐतवार सही
मगर तेरे बिन मेरा भरम कुछ भी नहीं

हर इक क़तरे में तेरा अक्स जो हो
साक़ी जाम सुराही और ख़म कुछ भी नहीं

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'165' 24th June 2002


कम है समंदर

शायद मुहब्बत का जलता हुआ चिराग देखा है
मैंने तेरी आँखों में इक आफ़ताब देखा है

यूँ तो हर रोज खुशियों की दुनिया में रहा मैं
मगर तेरी आँखों में एक अजब ख्वाब देखा है

कम है समंदर, कम है दरिया, कम है सारा आलम
मैंने तेरी आँखों में मुहब्बत का वो ताब देखा है

फिजा में कहाँ है मयस्सर वो दिलनशीं टुकड़ा
मैंने तेरी आँखों में ऐसा माहताब देखा है

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'179' 10th June 2003

Dedicated to the art of my heart, my beloved, only and only my life ...
on your birthday, please accept this poem. i have nothing to give at this time, so accept it 
Meerut.

इश्क़ और बदनामी

इश्क़ और बदनामी हमेशा साथ- साथ चलते हैं
जब मंजिल है एक तो हमराही रास्ते क्यूँ बदलते हैं

आज की दौलत और बस आज का है वजूद
वरना कल तो हम सब सिर्फ हाथ मलते हैं

उसे मिली शोहरत, इज्ज़त और मिला ओहदा
अरे जनाब आप बेवजह क्यूँ जलते हैं

ज़िन्दगी बिखर जाने का ग़म कैसा है "अजनबी"
हर शाम को सूरज की तरह हम भी ढलते हैं

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" 10th March. 2004, '182'

with the co operation of Alok

कहाँ हैं

कहाँ हैं वो कसमें , कहाँ हैं
कहाँ हैं वो वादे
जो किये थे तुमने कभी
खुले आसमां के नीचे ...... कहाँ हैं

कहाँ हैं वो सिसकियाँ
कहाँ हैं वो मुस्कराहटें
जो महसूस की थी तुमने कभी
चांदनी के साए में......... कहाँ हैं

कहाँ है वो रूठना
कहाँ है वो मनाना
अपने हाथों से वो
खुद का झूठा खिलाना.......... कहाँ है

कहाँ है वो रातों का आलम
कहाँ है वो आंधी का मौसम
सरे आलम से हो के निहा
खिलता जब मुहब्बत का मौसम ...... कहाँ है

कहाँ है वो पलकों का झुकना
कहाँ है आँखों का बेवजह रुकना
दिल ही दिल में दो दिलों का
वो पल भर का हँसना...........कहाँ है

काश वक़्त रुक जाता वहीँ ठहरकर
शायद खुश होता "अजनबी" रोकर
अब कहाँ से लाऊं गुजरे ज़माने की दुनिया
जो जा चुकी है मुझे छोड़कर....................... कहाँ है !!!

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" 3rd May, 2003, '185'

This poem is very effective in my life . it is very sweet & touchable poem for my life.

उल्फत का साहिल

वो कहते - कहते चुप हो जाना तेरा
मेरी हलकी सी झिझक और शर्मना तेरा

वो माजी की बातें और उल्फत का साहिल
ऐसे आलम में अश्कों का आना तेरा

वो बाहें, वो गेसू, और वो प्यारे से आरिज
और फिर इसके दरमियाँ मुस्कुराना तेरा

अब तो ज़िन्दगी की हर दीवार उजड़ी है "अजनबी'
जब तक हासिल नहीं उल्फत का सामयाना तेरा

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

 15th Sep. 2003 
'189'
This Poem is composed in The Barauni- Gwalior Train.

फुरकत में हमसफ़र

हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
जो भी सोचो वो अक्सर नहीं मिलता

तुम खफा होने की बात करते हो
वो कभी नज़र भर नहीं मिलता

हिज्र की रातों में चांदनी ने साथ दिया
वरना फुरकत में हमसफ़र नहीं मिलता

मेरे दिल को थी जो कायनात मंजूर
दोनों आलम मिले वो मगर नहीं मिलता

-मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'191' 5th May, 2002

दायरा दोस्ती का

दायरा दोस्ती का और मुहब्बत की बातें
वो रोज कहते हैं कोई ग़ज़ल सुना दें

कैनवस पर तुमको उतरना तो है मुश्किल
कहो तो अल्फाजों में तुमको बना दें

रूठ जाने का सबब पूछे बिना ही
निगाहों में ही वो मुझको मना लें

मेरी ज़िन्दगी का सफा पलट के देखो
दस्ताने इश्क का नगमा सुना दें

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'193' 27th Aug. 2002

काश पानी पे लिखी

काश पानी पे लिखी अपनी मुहब्बत होती
बिछड़ने का ग़म मिलने की शिद्दत होती

गुलमोहर के फूलों सी आँहें हमारी तुम्हारी
दिन में बेचैनी रातों को क़यामत होती

किताबे माजी के पन्ने पलटने से क्या फायदा
पहले सोचा होता शायद ये मुहब्बत होती

मेरे इशारों को समझने में वक़्त लगा दिया
वरना आज वो मेरी अपनी अमानत होती

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी'
'195' 27 Mar., 2004

Monday, June 28, 2010

अफ्सुर्दगी

वो जोशो- जुनूं
वो कामयाबी का परचम
शायद नहीं रहा
अब मेरे हाथों में

वरना आज घबराहट के बजाये
मुस्कराहट मेरे साथ होती
चेहरे पे उदासियों की लकीरें नहीं
रानाईयों और उमंगों का मजमा होता
यहाँ- वहां भागकर ज़र्रा भर
ख़ुशी की जुस्तुजू होती

खुशियों के शजरों के
दरमियाँ खड़ा होता
कोई किस्मत की बात कहता है, तो
कोई हाथ की लकीरों का खेल

ये तो वक़्त का तकाजा है
जो आज ये दिन दिखा रहा है
ये लिखकर तू चन्द लम्हों का
दर्द दूर कर सकता है "अजनबी'

गर हमेशा को दूर करे ये ग़म
ये दर्द, ये अफ्सुर्दगी!
तो मैं जानूँ
कि तू - शायर है
अजनबी!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" '201' 21st May., 2004
In VI sem, that sem wrote a dark story for my life. but for short time.  

शाम

ग़म भी हैं जो अब रुकने का नाम नहीं लेते
अगर ऐसी है बात तो उन्हें क्यूँ थाम नहीं लेते

शायद हल्का हो जाये ज़िन्दगी का सफ़र
मयकदे का दामन क्यूँ थाम नहीं लेते

समन्दर का साहिल, राही मंजिल बस तुम
यार खोई हुई ऐसी तुम क्यूँ शाम नहीं लेते

हँस- हँस के खुद को धोखा देते हो "अजनबी'
भरी महफ़िल में मय का क्यूँ जाम नहीं लेते

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'209' 10th May. 2005

नात

हर क़तरा इश्के मुस्तफ़ा से लबरेज हो जाये
मैं रहूँ रहूँ ये दिल मुस्तफ़ा का हो जाये

दोनों आलम के ख़फा होने की तमन्ना नहीं
मगर मेरा हर सफा मुस्तफ़ा का हो जाए

ज़र्रा भर ज़र नहीं चाहिए मुझे या रब
मेरी सांस का हर हिस्सा मुस्तफ़ा का हो जाये

दुनिया में नाम कमाकर क्या करोगे "अजनबी"
या अल्लाह आखिरत में मुस्तफ़ा का साथ हो जाये

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'219' 20th June, 2005

आखिरी ख़त

आज मैंने उसके नाम आख़िरी ख़त लिखा
जो कभी नहीं कुछ ऐसा आज तमाम लिखा

मौजों की अंजुमन से दिल के मकाँ को
मैंने अन्जान सा इक ऐसा पयाम लिखा

जाने क्यूँ सारे रिश्ते तोड़ दिए उस माहताब से
आज उस आफ़ताब को आखिरी सलाम लिखा

मेरी लग्जिशों पर रिन्द तनक़ीद करने लगे
और मैंने उसे ज़िंदगी का आख़िरी जाम लिखा

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"
'223' 27th July, 2003

बहलाओ तो जानें

गुल से मुहब्बत सब करते हैं, खार से दिल लगाओ तो जानें
रो- रो के ज़िन्दगी सब जीते हैं, हँस के दिल बहलाओ तो जानें

चुपचाप पानी में कश्ती हर कोई निकाल लेता है
तुम मौजों से लड़कर, साहिल पे आओ तो जानें

दोस्त को गले लगाने में कोई नहीं हिचकता यारो
तुम अपने दुश्मन से हाथ मिलाओ तो यारों

यारों के दरमियाँ हर कोई हँस के दिखा देता है
तुम तन्हाई में हँस के दिखलाओ तो जानें

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी"

'227' 1st Apr. 2005