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Monday, June 28, 2010

अफ्सुर्दगी

वो जोशो- जुनूं
वो कामयाबी का परचम
शायद नहीं रहा
अब मेरे हाथों में

वरना आज घबराहट के बजाये
मुस्कराहट मेरे साथ होती
चेहरे पे उदासियों की लकीरें नहीं
रानाईयों और उमंगों का मजमा होता
यहाँ- वहां भागकर ज़र्रा भर
ख़ुशी की जुस्तुजू होती

खुशियों के शजरों के
दरमियाँ खड़ा होता
कोई किस्मत की बात कहता है, तो
कोई हाथ की लकीरों का खेल

ये तो वक़्त का तकाजा है
जो आज ये दिन दिखा रहा है
ये लिखकर तू चन्द लम्हों का
दर्द दूर कर सकता है "अजनबी'

गर हमेशा को दूर करे ये ग़म
ये दर्द, ये अफ्सुर्दगी!
तो मैं जानूँ
कि तू - शायर है
अजनबी!!!

- मुहम्मद शाहिद मंसूरी "अजनबी" '201' 21st May., 2004
In VI sem, that sem wrote a dark story for my life. but for short time.  

5 comments:

  1. ब्लोगिग के विशाल परिवार में आपका स्वागत है! अच्छा पढ़े और अच्छा लिखें! मित्रों के ब्लोग पर जाए और अपने विचार ज़रुर व्यक्त करें! हो सके तो अनुसरण भी करें! हैप्पी ब्लोगिग!

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  2. उम्दा रचना!!

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  3. "गर हमेशा को दूर करे ये ग़म
    ये दर्द, ये अफ्सुर्दगी!
    तो मैं जानूँ
    कि तू - शायर है"

    बाजिब फ़रमाया

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  4. हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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